गर्मियों की छुट्टियां शुरू हो गईं थीं..मई का महीना होगा..हम अपने परिवार के साथ गांव बानपुर के लिए बस से रवाना हुए...गांव में एक ही बस शाम पांच के बजे के आसपास पहुंचती थी और सुबह नौ बजे के आसपास रवाना होती थी। शाम को बस गांव पहुंची..मन बड़ा ही खुश था..बस स्टैंड पास में ही था.दादी खुद ही बस स्टैंड खेत में काम करने वाले के साथ पहुंची..कुछ उसने सामान लिया..बाकी सामान पूरा परिवार लेकर हवेली की ओर चला..हवेली तक पहुंचते-पहुंचते सूरज ढलने लगा था..शाम गहराने लगी थी।
हवेली क्या थी..ज्यादातर खुला हिस्सा..ऊपर आसमान..तेज हवा के झोंके...अजीब सा समां था..अजीब सा नजारा था...पांच भाई-बहन..माता-पिता के साथ हवेली के आंगन में एक तख्त और बाकी चारपाई पर बैठे..चूल्हे पर चाय बनने लगी। जब तक चाय पी..हाल-चाल पूछे...तब तक अंधेरा छा चुका था..दादी ने दोनों लालटेन और एक लैंप को निकाला..सफाई करने के बाद हल्की सी रोशनी आंगन में नजर आने लगी। एक किनारे बनी रसोई यानि किचन में चूल्हे पर खाना बनने लगा। दादी और मां रसोई में व्यस्त हो गईं। आंगन में एक लाईन से तख्त और चारपाई बिछ गईं..बिस्तर लगा दिए गए और अंधेरे में टिम-टिम करती लालटेन के बीच एक-दूसरे के पास बैठ कर बतियाने लगा..खाना-पीना हुआ। रात के नौ बजते-बजते तो ऐसा लगने लगा कि आधी रात हो गई।
सारे लोग बिस्तर पर लुढ़क गए...सभी थके हुए थे..थोड़ी देर बाद तो सभी नींद के आगोश में चले गए। मेरी भी नींद लग चुकी थी। मुझे पता नहीं..रात का कितना वक्त हुआ होगा...अचानक नींद उचटने लगी..महसूस होने लगा कि चारपाई हिल रही है। मैं डर के मारे और सिकुड़ गया। उम्र ही कितनी थी..कक्षा-तीन की परीक्षा देकर आया था..करीब नौ साल की उम्र में कितनी समझ..कितनी मजबूती...थोड़ा सी आंख खुली तो देखता हूं कि चारपाई को कोई हल्के-हल्के धक्का दे रहा है। लेटे-लेटे बंद आंख को थोड़ा सा खोलते हुए..नींद का बहाना करते हुए ध्यान से इधर से उधर देखा..कोई दिखाई नहीं दे रहा..अगल-बगल की चारपाई पर सब सोए हुए..मेरे साथ मेरा बड़ा भाई भी लेटा हुआ..अब भी गहरी नींद में..लेकिन मुझे काटो तो खून नहीं जैसी हालत.....आंगन क्या पूरा मैदान था..हवा भी सांय-सांय कर रही थी...लगा कि नींद में सपना देख रहा हूं.या फिर खुद से ही डर रहा हूं..इसलिए आंखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगा..लेकिन नींद तो उड़ चुकी थी..आंखें बंद थीं..खोलने का प्रयास कर रहा था..लेकिन डर के मारे बंद हो रही थीं...थोड़ी देर बाद फिर चारपाई हिलने का एहसास होने लगा..डर के मारे मेरा बुरा हाल हो रहा था..चारपाई को कोई इधर से उधर हल्के-हल्के कर रहा था..कभी आगे की ओर..कभी पीछे की ओर..मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि चुप रहूं..या चिल्ला दूं..लेकिन थोड़ी सी आंख खोलकर देखता हूं कि सारे लोग मजे से सो रहे हैं...अचानक घरघराहट जैसी आवाज थोड़ी दूर से सुनाई दी..रह-रह कर घराघराहट..चारपाई का आगे-पीछे खिसकना..कभी-कभी ऊपर नीचे होना..मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है..कौन कर रहा है...दोनों और के दांत जोर से दबे हुए थे..हाथ-पैर सिकुड़ गए थे..चादर को मुंह तक ढक लिया था...घरघराहट की आवाज कभी लग रही थी कि किसी की नाक बज रही है..कोई रह-रह कर खर्राटे ले रहा है या फिर कहीं और से आ रही थी.कभी लगता कि घरघराने की आवाज दांए से आ रही है..कभी लगता बाएं से...ये एहसास थोड़ी-थोड़ी देर बाद होता..कभी आवाज से परेशान तो कभी चारपाई के हिलने से...जैसे ही लगता कि अब सब कुछ सामान्य है फिर से वही हरकत का एहसास...चारों ओर घुप्प अंधेरा..एक लालटेन की जुगनू से जगमगाती रोशनी..अंधेरे में भी आंखें खोलने की हिम्मत नहीं...काफी देर के बाद लगा कि अब शांति है..चारपाई नहीं हिल रही है..और न ही घराघराहट की आवाज आ रही है..तभी लगा कि किसी ने मुझे हल्के से हिलाया है...अब तो जैसे सिहरन सिर से पांव तक दांत न बजें..इसलिए जोर से बत्तीसी को दबाए हुए..थोड़ी देर फिर लगा कि किसी ने फिर शरीर को हिलाने की कोशिश की है...मैं अपने भाई से लगभग चिपका हुआ..सिकुड़ा हुआ सोने का नाटक कर रहा था लेकिन घबराहट के मारे जो हाल था..
आज भी कल्पना कर सिहर उठता हूं..रोंगटे खड़े हो जाते हैं..ये सिलसिला रह-रह कर रात भरा चला..कितने घंटे..कोई अंदाजा नहीं....मुझे याद है कि सुबह पांच बजे से ही रोशनी फैलने लगी थी तब तक जो वक्त मैंने काटा..वो सदियों जितना था...सुबह जब रोशनी हुई तब जाकर मैं सोया और धूप आने तक सोता रहा...आखिर क्या था चारपाई हिलने का माजरा...आगे क्या हुआ...कल का इंतजार करिए.....
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हवेली क्या थी..ज्यादातर खुला हिस्सा..ऊपर आसमान..तेज हवा के झोंके...अजीब सा समां था..अजीब सा नजारा था...पांच भाई-बहन..माता-पिता के साथ हवेली के आंगन में एक तख्त और बाकी चारपाई पर बैठे..चूल्हे पर चाय बनने लगी। जब तक चाय पी..हाल-चाल पूछे...तब तक अंधेरा छा चुका था..दादी ने दोनों लालटेन और एक लैंप को निकाला..सफाई करने के बाद हल्की सी रोशनी आंगन में नजर आने लगी। एक किनारे बनी रसोई यानि किचन में चूल्हे पर खाना बनने लगा। दादी और मां रसोई में व्यस्त हो गईं। आंगन में एक लाईन से तख्त और चारपाई बिछ गईं..बिस्तर लगा दिए गए और अंधेरे में टिम-टिम करती लालटेन के बीच एक-दूसरे के पास बैठ कर बतियाने लगा..खाना-पीना हुआ। रात के नौ बजते-बजते तो ऐसा लगने लगा कि आधी रात हो गई।
सारे लोग बिस्तर पर लुढ़क गए...सभी थके हुए थे..थोड़ी देर बाद तो सभी नींद के आगोश में चले गए। मेरी भी नींद लग चुकी थी। मुझे पता नहीं..रात का कितना वक्त हुआ होगा...अचानक नींद उचटने लगी..महसूस होने लगा कि चारपाई हिल रही है। मैं डर के मारे और सिकुड़ गया। उम्र ही कितनी थी..कक्षा-तीन की परीक्षा देकर आया था..करीब नौ साल की उम्र में कितनी समझ..कितनी मजबूती...थोड़ा सी आंख खुली तो देखता हूं कि चारपाई को कोई हल्के-हल्के धक्का दे रहा है। लेटे-लेटे बंद आंख को थोड़ा सा खोलते हुए..नींद का बहाना करते हुए ध्यान से इधर से उधर देखा..कोई दिखाई नहीं दे रहा..अगल-बगल की चारपाई पर सब सोए हुए..मेरे साथ मेरा बड़ा भाई भी लेटा हुआ..अब भी गहरी नींद में..लेकिन मुझे काटो तो खून नहीं जैसी हालत.....आंगन क्या पूरा मैदान था..हवा भी सांय-सांय कर रही थी...लगा कि नींद में सपना देख रहा हूं.या फिर खुद से ही डर रहा हूं..इसलिए आंखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगा..लेकिन नींद तो उड़ चुकी थी..आंखें बंद थीं..खोलने का प्रयास कर रहा था..लेकिन डर के मारे बंद हो रही थीं...थोड़ी देर बाद फिर चारपाई हिलने का एहसास होने लगा..डर के मारे मेरा बुरा हाल हो रहा था..चारपाई को कोई इधर से उधर हल्के-हल्के कर रहा था..कभी आगे की ओर..कभी पीछे की ओर..मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि चुप रहूं..या चिल्ला दूं..लेकिन थोड़ी सी आंख खोलकर देखता हूं कि सारे लोग मजे से सो रहे हैं...अचानक घरघराहट जैसी आवाज थोड़ी दूर से सुनाई दी..रह-रह कर घराघराहट..चारपाई का आगे-पीछे खिसकना..कभी-कभी ऊपर नीचे होना..मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है..कौन कर रहा है...दोनों और के दांत जोर से दबे हुए थे..हाथ-पैर सिकुड़ गए थे..चादर को मुंह तक ढक लिया था...घरघराहट की आवाज कभी लग रही थी कि किसी की नाक बज रही है..कोई रह-रह कर खर्राटे ले रहा है या फिर कहीं और से आ रही थी.कभी लगता कि घरघराने की आवाज दांए से आ रही है..कभी लगता बाएं से...ये एहसास थोड़ी-थोड़ी देर बाद होता..कभी आवाज से परेशान तो कभी चारपाई के हिलने से...जैसे ही लगता कि अब सब कुछ सामान्य है फिर से वही हरकत का एहसास...चारों ओर घुप्प अंधेरा..एक लालटेन की जुगनू से जगमगाती रोशनी..अंधेरे में भी आंखें खोलने की हिम्मत नहीं...काफी देर के बाद लगा कि अब शांति है..चारपाई नहीं हिल रही है..और न ही घराघराहट की आवाज आ रही है..तभी लगा कि किसी ने मुझे हल्के से हिलाया है...अब तो जैसे सिहरन सिर से पांव तक दांत न बजें..इसलिए जोर से बत्तीसी को दबाए हुए..थोड़ी देर फिर लगा कि किसी ने फिर शरीर को हिलाने की कोशिश की है...मैं अपने भाई से लगभग चिपका हुआ..सिकुड़ा हुआ सोने का नाटक कर रहा था लेकिन घबराहट के मारे जो हाल था..
आज भी कल्पना कर सिहर उठता हूं..रोंगटे खड़े हो जाते हैं..ये सिलसिला रह-रह कर रात भरा चला..कितने घंटे..कोई अंदाजा नहीं....मुझे याद है कि सुबह पांच बजे से ही रोशनी फैलने लगी थी तब तक जो वक्त मैंने काटा..वो सदियों जितना था...सुबह जब रोशनी हुई तब जाकर मैं सोया और धूप आने तक सोता रहा...आखिर क्या था चारपाई हिलने का माजरा...आगे क्या हुआ...कल का इंतजार करिए.....
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