Wednesday, March 4, 2015

भूत की कहानी का तीसरा दिन (हवा में धूल के गुबार से बनती आकृति)

सुबह थोड़ी सी नींद लगी थी तो फिर मुझे लगा कि कोई हिला रहा है..पहले तो किसी ने हल्के से हिलाया-डुलाया..मैं तो मन ही मन डर के मारे कांपने लगा..थोड़ी देर में कोई जोर-जोर से मुझे हिलाने-डुलाने लगा..अब तो बंद आंखों में ही अजीब-अजीब से नजारे दिखने लगे। जब जोर से धक्का पड़ा तो हड़बड़ा कर उठ बैठा..देखा कि मां बगल में खड़ी हैं.. जो उठाने का प्रयास कर रही थीं..धूप सीधी आंखों में आ रही थी..लगा कि दोपहर सी हो गई है। मां बोली-कितना सोओगे..उठो..धूप निकल आई है। मेरी हालत ये थी कि उन्हें भी देखकर डर सा महसूस हो रहा था..आंखों को फाड़-फाड़ कर देख रहा था कि मां ही है..लेकिन भीतर ही भीतर आगे-पीछे खिसकती चारपाई नजर आ रही थी और मन में अंधेरी रात अब भी छाई हुई थी। खैर..थोड़ी देर बाद सामान्य हुआ..और दिनचर्या शुरू हुई।


चाय-नाश्ते के बाद हम खेत की ओर मटरगश्ती के लिए चले..बगल के दरवाजे से ही एक पगडंडी बनी हुई थी..दांयी और जाने पर सड़क पर पहुंचते थे और बांयी ओर का रास्ता खेत की ओर..सटा हुआ खेत..आधा किलोमीटर की पगडंडी के बाद कुआं तक पहुंचे। जो हमारे लिए पिकनिक स्पाट जैसा था..पानी खींचने के लिए चारों और रहट लगा था..बैठने के लिए पत्थर की छोटी-छोटी चट्टानें..पानी का कल-कल कर छोटी सी नहर में खेत की ओर जाना..चारों और पेड़-पौधे...आसपास बड़े-बडे़ खेत...रह-रह कर रात की बात याद आ रही थी लेकिन न तो किसी से कहने की हिम्मत हुई.. न ही समझ में आया कि रात क्या हो रहा था..चारपाई कौन हिला रहा था..धीरे-धीरे खेलने में मस्त हो गया..और रात का खौफनाक मंजर यादों से हटने लगा। पत्थर पर बैठा पानी में छोटे-छोटे पत्थर फेंक रहा था..बड़ा मजा आ रहा था..तभी पानी में देखा कि कुछ काला सा रेंग रहा है..पानी के भीतर कभी छोटा-कभी मोटा..कभी गोल मोल और जब उसने पूरी लंबाई दिखाई तो लंबी सी चीख निकल गई..काला नाग पानी में मानो नहाने का मजा ले रहा हो..जैसे ही चीखा..दूसरी ओर खड़े पिता दौड़े..जैसे ही उन्होंने मेरी आंखों को एकटक देखा तो समझ गए..बोले..बेटा घबराओ नहीं..यहां तो ऐसे जीव कदम-कदम पर बिखरे हैं..लेकिन उन्हें छेड़ना मत..अपने आप निकल जाएंगे। पिता जी शुरू से गांव में रहे थे..बड़े ही साहसी और जीवट वाले थे..मेरा एक हाथ पकड़ गए कुएं के पास ले गए..बोले झांक कर गौर से देखो..कुएं का नजारा देखकर तो मेरी घिग्घी ही बंध गई..जितनी बार गौर से देखूं..अजीब-अजीब सी हलचलें..एक नहीं दो नहीं...जितनी बार देखूं..अलग-अलग सांप..मेढक..लगातार पानी में होती हलचल...पानी की ऊंची-नीची होती लहरें...पिता जी ने समझाया..बेटा..सैकड़ों जीव-जंतु कुएं में..खेत में..पेड़-पौधों के आसपास मिलेंगे...इनके बिना हमारा जीवन भी संभव नहीं..यही है प्रकृति का असली नजारा..

थोड़ी देर में नहा-धोकर हम वापस पगडंडी से हवेली की ओर रवाना हुए...अचानक खेत के दूसरी ओर दूर नजर गई तो देखा उड़ती हुई धूल का गुबार..ऊंचाई तक जाता हुआ..निगाह जब उस पर ठहरी तो लगा कि लंबे से शख्स जैसी आकृति..पूरा शरीर..और गुबार लगातार ऊंचा होता हुआ...इतना ऊंचा होता चला गया कि देखने के लिए गर्दन ऊंची करनी पड़ी..आकृति ऊपर की ओर जाती हुई..और नीचे धूल से बने हुए पैर...पैर लगातार लंबे होते चले जा रहे। रात का जो डर अभी निकला ही था कि ये आकृति देखकर फिर हालत खराब...देखा कि आकृति आसमान की ओर विलीन हो गई..पैर इतने लंबे होते चले गए कि कई मंजिला फ्लैट छोटे पड़ जाएं...एक मिनट में तेजी से बनी आकृति विलीन हो गई..पैर लंबे होते होते आसमान में इतने ऊंचे निकल गए कि पता ही नहीं चला....जब तक पिताजी को इशारा करने की सोचता... तब तक धूल के गुबार का और उस आकृति का नामोनिशान नहीं था..अब फिर उस गुबार और रात के खौफनाक मंजर में उलझ गया। मन अच्छा हुआ था कि अचानक शरीर में सिहरन सी दौड़ने लगी थी..जैसे-तैसे घर तक पहुंचा...और फिर भाई-बहनों के साथ उछल-कूद में मस्त हो गया। जैसे ही शाम होने को आई..फिर खिसकती चारपाई की याद आने लगी...दूसरी रात कैसे निकली...क्या पहले दिन वहम हुआ था..या फिर हकीकत में कोई था..कल तक का इंतजार करिए.......ये भी पढ़िए...amitabhshri.blogspot.com   whatsappup.blogspot.com