Friday, March 6, 2015

भूत की कहानी का पांचवां दिन (कभी पास कभी दूर जाती आकृति)

लग रहा था कि ये हवेली अजीबोगरीब है..कभी अच्छा लगता तो कभी डर के मारे यहां से भागने का मन करता...गांव के माहौल में तालमेल बिठाना अजीब सा लग रहा था लेकिन हम गर्मियों की छुट्टियों में आए थे..इसलिए एक महीने तो यहीं रहना ही था...सुबह हुई तो रात की आकृति दिमाग में घूम रही थी..आज फिर देर से उठा..या समझो उठाया गया..जब भाई-बहन के साथ खेलने में मशगूल रहता था तो रात भूल जाता...


आज फिर फिर खेत के कुएं की ओर पगडंडी पर रवाना हुए..तो दूर से फिर वही छोटी से आकृति आंखों के सामने घूमने लगी..लगा कि वो आकृति हमारे पास आ रही है..फिर आंखों से ओझल हो जाती..फिर लगता कि आकृति और पास दिख रही है..आंखों को मलता हुआ अपने भ्रम को दूर करने की कोशिश में चुपचाप भाई-बहन के पीछे-पीछे चला जा रहा था..तभी देखता हूं कि आकृति बहुत ही पास से दिख रही है...मुझे अब घबराहट सी होने लगी..कभी सोचता कि क्या वाकई वही आकृति है जो रात को देखी थी..या फिर उससे अलग..मैं चल तो आगे की ओर रहा था लेकिन निगाहें खेत के एक ओर जमी हुई थी..जहां से आकृति पास आते दिख रही थी..आकृति छोटी सी थी...मुझसे भी आकार में थोड़ी सी छोटी..लेकिन स्पष्ट नहीं दिख रहा था...जैसे-तैसे कुएं के तक पहुंचा तो देखता हूं कि आकृति वहां भी दिख रही है...आंखों पर यकीन ही नहीं हो रहा था..समझ में नहीं आ रहा था कि ये आकृति वाकई है या फिर मैं रात के अंधेरे में जाती आकृति को ही देख रहा हूं....जब मेरा भाई ध्यान बंटाता तो मैं फिर उससे बात करने के व्यस्त हो जाता..प्रकृति के नजारों को महूसस करने लगता लेकिन फिर उसी तरफ निगाहें लौटाता तो आकृति लगता कि चली आ रही है..हांलाकि पास नहीं आ रही...ऐसा लग रहा था कि फिर दूर से आ रही है और पास आते ही नजरों से ओझल हो जा रही। बार-बार ऐसा होते देख फिर मेरी हालत खराब हो रही थी..बार-बार सोचता कि उस ओर देखना ही नहीं है लेकिन मन नहीं मानता और फिर उसी ओर निगाह जाती.....ऐसा काफी देर तक चलता रहा। अभी तक रात का डर निकला नहीं था कि अब खेत और कुएं पर आने पर भी डर लग रहा था..समझ में नहीं आ रहा था कि किससे कहूं..क्या कहूं...जैसे-तैसे अपने बड़े भाई को चुपके से बोला कि देखो उस तरफ..वो कौन आ रहा है..भाई ने देखा तो देखता रह गया और बोला कि किसकी बात कर रहे हो..वहां तो दूर-दूर तक कोई नहीं दिख रहा..

भाई बोला चलो पेड़ पर चढ़ते हैं...पास में ही लगे अमरूद के पेड़ पर चढ़ने की कवायद शुरू हुई..भाई बोला पहले तुम्हें चढ़ाता हूं..उसने मुझे सहारा देखकर चढ़ाना शुरू किया..मैं ऊपर पहुंचा और  दो टहनियों के बीच जगह देखकर बैठ गया ..हाथ से दोनों टहनियों को पकड़ लिया...नीचे से भाई भी चढ़ना शुरू हुआ..जैसे ही मैंने दूसरे पेड़ पर नजर दौड़ाई तो देखा कि कुछ ही दूर दूसरे पेड़ पर वही छोटी सी आकृति बैठी हुई है और हिल-डुल रही है..कभी दिखती तो कभी गायब हो जाती। ऐसा मंजर न कभी देखा था न सुना था...चंचल मन शांत हो चुका था..घबराहट में हाथ-पैर कंपकंपाने लगे थे...तब तक भाई ऊपर चढ़ चुका था..लेकिन मैं इतना घबरा गया कि हाथ छूटे और नीचे गिरा धड़ाम से...ज्यादा तो नहीं लगी..लेकिन चुपचाप पत्थर पर जाकर बैठ गया..भाई भी नीचे उतर आया..बोला ठीक से पकडना चाहिए था..बच गए नहीं तो ज्यादा चोट लग जाती...मुझे चोट का जितना ध्यान नहीं था..उतना उस पेड़ की ओर देख रहा था जहां आकृति नजर आई थी लेकिन अब नहीं दिख रही थी..खैर...थोड़ी ही देर में हम वापस हवेली की ओर लौटे लेकिन उस आकृति का रहस्य अंदर ही अंदर खाए जा रहा था...कभी रात का ध्यान आता तो कभी दिन में हवेली के बाहर दिखती आकृति का...वो आकृति वाकई थी..या नहीं...अगर थी तो कौन थी..कल का इंतजार करिए......ये भी पढ़िए...amitabhshri.blogspot.com   whatsappup.blogspot.com